Monday, January 21, 2013

21 जनवरी 2013 का चित्र और भाव



Dinesh Nayal 

फैला दिए आज हाथ मैंने
हर एक इनसान के आगे,
फैले थे जो हाथ कल तक
भगवान के आगे,

आशा यही उम्मीद थी
मिल जाएगा
सब कुछ बिन माँगे,
फैला दिए आज हाथ मैंने
हर एक इनसान के आगे...

हाँ मजबूर मैं हूँ आज
हाँ आज मैं खाली हूँ
जैब से भी, प्यार से भी
यारों से भी
जो फैला रहा हूँ हाथ
इस कदर दुनियां के आगे,
कोई मिला दे वापस मुझे
मेरे प्यार से मेरे यार से
कोई दिला दे वो पल सुनहरे
बिती यादों के,

फैला दिये आज हाथ मैंने
हर एक इनसान के आगे.....

एक दिन ऐसा आएगा 'दिनू'
ये लोग ही रोयेंगे तेरे आगे,
खुशी देख ना पायेँगे
और जल जायेँगे तेरे आगे,

फैला दिए आज हाथ मैंने
हर एक इनसान के आगे........

:

केदार जोशी एक भारतीय 

कितना लाचार है इन्सान 
हाथो की लकीरों पे विश्वास करता है ,
कितना बेबस है इंसान, 
जो खुद को नहीं पहचान सकता है ,
दोस्तों हाथो की लिकारो में विश्वास करोगे 
तो अंधेरो में ही रहोगे ..
कुछ करने की हिम्मत रखते हो 
तो खुद पर ऐतबार और हाथो पर आत्मविश्वास रखो ...


बालकृष्ण डी ध्यानी 

मन का चिंतन

मन का अवलोकन
ध्यान का सम्मोहन
दो हाथों से जुडी ध्यान की ये मुद्रा
परिकल्पना है वो विचारों का चिंतन

मनन और जुगल का योग वो
हाथो की रेखा राशि का योग और जोड़ वो सारांश है
रक़म समुदाय का है वो परिणाम मीज़ान
मात्रा योग समाया भाव हर रास के

एकता संगति समानता मिलाप एकरूपता है योग
इन हथेली की रेखाओं से मिली शरीर की हर रेखा का जोड़
मन विचार बुद्धि मानस मत है वो लक्ष्य का
ध्यान ही है एक ही एक सच्चा निचोड़ा

बुद्धि टोप मन शिरस्राण का निर्धारण है मन
इच्छा वासना और आकांक्षा चाह की अभिलाषा है वो लालसा
इच्छाशक्ति उच्चांक है इरादा उस ध्यान का
झुकाव है उस हस्त के बस आवेदन का

मन का अवलोकन
ध्यान का सम्मोहन
दो हाथों से जुडी ध्यान की ये मुद्रा
परिकल्पना है वो विचारों का चिंतन


भगवान सिंह जयाड़ा 

हे ईश्वर तेरी इबादत में सदा ,
यूँ ही फैले रहें मेरे यह हाथ ,
कर कल्याण तू जगत का ,
कभी न छोड़ना हमारा साथ ,
हाथ न फैलें किसी के आगे ,
लाचार न किसी को करना ,
बस दो बक्त की रोटी सदा ,
मेरी मेहनत की मुझे देना ,
हाथ की लकीरों पर बिश्वाश ,
कभी मैंने किया नहीं प्रभो ,
बस कर्म पर बिश्वाश किया ,
सदा तुम को सुमिरन किया ,


किरण आर्य 

चिंतन हाँ आत्म चिंतन है जरुरी बहुत हे मन
ईश्वर जिसे ढूंढें मानुष जगत की चैतन्यता में
बैठ मुस्कुराये हौले हौले तेरे ही तो अंतर्मन में
बस करनी पहचान और करना है कायम रिश्ता
उस अलौकिक से लौकिक जगत की सीमा में
रूह को करना है रौशन हो ध्यान मग्न पाना है
जिसे पाने को भटकता मानुष ताउम्र मृग सा
कस्तूरी की सुंगंध से आतुर फिरे मारा मारा
और कस्तूरी रूपी ईश् विराजे उसके हृदय में
ध्यान मनन से कायम होगा इक रिश्ता अटूट
मन का उस परब्रह्म से निस्वार्थ चिरायु जन्म जन्मांतर का .

नैनी ग्रोवर 

हाथ पर हाथ रख हम तो देख रहे थे, खेल इस दुनियाँ के,
किसी ने साधू बता दिया हमें, किसी ने भिखारी बना दिया !! 

अलका गुप्ता 

सुन लो प्रार्थना मेरी हे भगवान् !
देना सबको उत्तम स्वास्थ्य !
निर्विघ्न करना सबके काज !
सत्कर्मो में ही हो सबका विशवास !
फैलें तेरे ही आगे हम सबके हाथ !
सबका सब विधि हो कल्यान !
होवे दुखिया ना कोई सृष्टि में प्राणधारी !
हे ईश सब सुखी हों कोई न हो दुखी !
सब हों निरोग धन धान्य के भंडारी !|
भेद भाव भूल के पावें प्रसाद हर देहधारी !
आत्म चिंतन का गहन मंथन हो !
हो काँधे पर मेहनत का भरोसा !
तोड़ ना देना आत्म-बल किसी का !
जब परीक्षा का समय कठिन हो !!

डॉ. सरोज गुप्ता 

इसकी खुरदुरी हथेलियाँ 
बताती है कि
यह एक कामगार है !
कामगार सृजनहार होता है 
इसकी हथेली में कैद हैं 
चमकीली सीपियाँ 
कही यह रचनाकार तो नहीं ?

रोज -रोज गढ़ता है नया 
फिर उसे मिटाता है !
मिट्टी को मिटटी में मिलाता है 
कही यह कुम्हार तो नहीं ?

इसकी हथेली की 
मोटी -मोटी लकीरें 
लोहे की छड जैसी 
हो गयी हैं 
लोहा लोहे को काटता है 
यह भी काटेगा 
सदियों से जकड़ी जंजीरें 
कही यह लुहार तो नहीं ?

रुखी-सूखी हथेलियों से 
उठायी बोझों की टोकरियाँ 
भूख की आग से जल रही हैं 
पेट की आंतडियां 
सिकुड़ कर हो गयी 
जैसे गली संकरी 
चराते हुए बकरियां 
दीमक ने खा ली है पसलियाँ 
कही यह इंसान तो नहीं ?

संगीता संजय डबराल 

हसरत लिए बैठी थी में
कि कुछ मांगू,
तकदीर से लड़ रही हूँ,
तुझसे तकदीर मांगू,
हसरत थी उठाकर हाथ
तेरे सजदे में जब बैठू
चमक जाये मेरी किस्मत,
कुछ सितारे मांगू,
पतझड़ सा बे-रंग जीवन
कुछ नई बहारें मांगू,
छंट जाएँ उदासियों के बादल
एक सूरज नया मांगू,
रात भी अंधियारी ना लगे,
ऐसी चांदनी मांगू,
खुशियों से भरी रहे झोली,
आसमान सा आँचल मांगू,
पर मेरे "खुदा" मेरी ये दुआ
तब करना पूरी, जब ये सभी खुशियाँ
मैं सबके लिए मांगू,


प्रतिबिम्ब बड़थ्वाल 
हाथ खाली है 
लेकिन 
मन में 
मस्तिष्क में 
ईश्वर का ध्यान 

हाथो की लकीरों से 
अब कोई शिकायत नही 
जो करना था किया 
खुद के लिए 
अपनों के लिए 
कभी चाह कर 
कभी बेबसी से 
कभी किसी के कहने से 
कभी किसी के बोलने से 

कभी बंद की मुठ्ठी
कभी खोल दी मुठ्ठी 
आज बैठा हूँ 
हथेली खोल खोलकर 
अब लकीरे 
गहरी हो गई है 
ये तो 
मेरे कर्मो की छाप है 
आँखे मूँद बैठा हूँ 
अंतर्मन से 
बात कर रहा हूँ

*************



सभी रचनाये पूर्व प्रकाशित है फेसबुक के समूह "तस्वीर क्या बोले" में https://www.facebook.com/groups/tasvirkyabole/

1 comment:

  1. बहुत सुन्दर लग रही हैं सभी मित्रों की रचनाएँ ..अत्यंत धन्यवाद प्रति जी

    ReplyDelete

शुक्रिया आपकी टिप्पणी के लिए !!!